स्वामी सहजानंद के आंदोलन में महिलाओं ने निर्णायक भूमिका निभाई
(श्री सीताराम आश्रम , बिहटा में मनाई गई स्वामी सहजानंद सरस्वती की 135 वीं जयंती। )
श्री सीताराम आश्रम (राघोपुर) , बिहटा, 8 मार्च । महान किसान नेता और स्वाधीनता सेनानी स्वामी सहजानंद सरस्वती की 135 वीं जयंती श्री सीताराम आश्रम, राघोपुर ( बिहटा ) में मनाया गया। इस मौके पर एक विमर्श ‘ स्वामी सहजानंद सरस्वती के किसान आंदोलन में महिलाओं की भूमिका ‘। इस मौके पर बिहटा, पटना , आसपास के गांवों सहित आई.आई.टी ,पटना के प्रोफेसर शामिल हुए। ज्ञातव्य हो कि राघवपुर स्थित श्री सीताराम आश्रम से पूरे देश के किसान आंदोलन का संचालन होता रहा है।
आगत अतिथियों का स्वागत ट्रस्ट के सचिव और प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ सत्यजीत सिंह ने किया।
अध्येता और श्री सीताराम आश्रम ट्रस्ट के सदस्य कैलाश चंद्र झा ने कई उदाहरण और दस्तावेज दिखाते हुए कई नई बातों से अवगत कराया ” स्वामी सहजानंद सरस्वती के किसान आंदोलन का कार्यकाल 1930 से 1950 तक रहा है। उनके है आंदोलन में महिलायें बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया करती थीं। संभव है किसान आंदोलनकारियों की यह रणनीति भी रही हो कि पुलिस से निपटने के लिए महिलाओं को आगे किया जाए। सांडा, रेवड़ा, बड़हिया टाल के संघर्ष में महिलाएं सबसे आगे बढ़कर काम कर रही थी। रेवडा किसान आंदोलन में यदुनंदन शर्मा की पत्नी और उनकी बेटियों सहित अन्य महिलाओं का जिक्र स्वामी जीवन की आत्मकथा में भी किया है। उनकी चर्चित किताब ‘किसान कैसे लड़ते हैं ‘ में महिलाओं की निर्णायक भूमिका को देखा जा सकता है। अखिल भारतीय किसान सभा में भारती रंगा, कमला देवी चटोपाध्याय, महाशवेता देवी महिलाओं का संबंध किसान आंदोलन से जुड़ाव था। “
इस मौके पर कैलाश चंद्र झा ने कुछ नए दस्तावेजों के आधार पर लगभग रहस्योद्घाटन जैसी बातें ‘मेरा जीवन संघर्ष ‘ के बारे में करते हुए बताया ” आखिर मेरा जीवन संघर्ष स्वामी जी के जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हुआ जबकि ‘गीता हृदय’ और ‘किसान सभा के संस्मरण’ उनके जीवन काल में प्रकाशित हो गया था ? ‘मेरा जीवन संघर्ष’ आखिर क्यों नहीं प्रकाशित हुआ ? यह बड़ा सवाल है। स्वामी जी ने 1942 लिखी आत्मकथा में कुछ नई बातें जोड़कर आजादी के बाद प्रकाशित करने की कोशिश की थी। लेकिन उनके प्रकाशक ‘किताब महल’ उसमें कुछ संशोधन करने उसे उपन्यास की तरह सरस बनाने का सुझाव दिया था जिसे स्वामी जी ने अस्वीकार कर दिया था और अपनी पांडुलिपि वापस मांग ली। उसके बाद 1950 में उनकी मौत ही हो गई। यह आत्मकथा स्वामी जी की मौत के बाद 1952 में सीताराम आश्रम ट्रस्ट से प्रकाशित हो सका था। ”
सामाजिक – राजनीतिक कार्यकर्ता मणिकांत पाठक ने कहा ” इस ट्रस्ट में आने पर स्वामी जी जैसे महापुरुष के बारे में जानने समझने का मौका मिलता है। स्वामी जी ने पटना पश्चिमी किसान सभा की स्थापना की यह हमलोगों की गर्व बात की है। इस इलाके का जमींदार बहुत अत्याचारी थे। मैंने यदि किसान सभा के संस्मरण को नहीं पढ़ा होता तो जमींदारों के अत्याचार से वाकिफ नहीं हो पाता। आपके छप्पर पर दो कद्दू है , एक जमींदार का हो जाता था, दो बकरी है एक जमींदार का हो जाता था। पेड़ किसी ने भी लगाया हो फल जमींदार का हो जाता था। बहु बेटियों की मर्यादा का हनन किया जाता था। इसी अन्याय और अत्याचार से निपटने के लिए किसान सभा की स्थापना की। उसके बाद प्रदेश और फिर देश स्तर पर संगठित किया गया। सिमरी बखित्यारपुर जमींदार के बारे में स्वामी जी ने लिखा है कि पांच चीजें उसकी मर्जी के बगैर नहीं खरीदी बेची जा सकती थी। नमक, किरासन तेल, स्वादिष्ट सोंगती मछली और जानवरों के मरने के बाद चमड़े को उसके अनुमति के बगैर नहीं बेच में सकते थे। जमींदारों के इस आतंक राज के खिलाफ स्वामी जी ने काम किया। जमींदारी शोषण जाति और धर्म का भेद नहीं करता था। स्वामी जी को केवल किसान नेता कहना उनको छोटा करना है। उनकी सभी किताबें और रचनाएं हैं वह सभी हजारीबाग सेंट्रल जेल में लिखे। उन्हें जेल की सजा किसान आंदोलन में नहीं बल्कि आजादी के आंदोलन में भाग लेने के कारण हुई थी। एक स्वाधीनता सेनानी, किसान नेता, क्रांति कैसे होगी यह सब बातें वे सोचा करते थे। क्रांति से ही वंचित जनता का जीवन बदलेगा यही बात वे कहा करते थे। जितनी सरल हिंदी भाषा में उन्होंने लिखा वैसा मुझे आज तक पढ़ने को नहीं मिला। स्वामी जी के समय खेती में मजदूरों की भागीदारी होती थी। किसान सभा में किसान और खेत मजदूर दोनों की सभा महिलाओं के उपेक्षा नहीं करता। किसान सभा का सदस्य कौन बन सकता है ,18 साल से ऊपर के सभी लोग सदस्य बनें महिलाओं को शामिल कर उन्होंने तमाम काम किया। आजाद मुल्क होने में शोषण, अत्याचार बदस्तूर जारी है। जमींदार जवान बहु बेटी की आबरू लूट लेते थे। यदुनंदन शर्मा और स्वामी जी ने समझाया कि डरो मत, मुकाबला करो। अत्याचारियों से रक्षा करने के लिए मुकाबला करने की बात सिर्फ कही नहीं बल्कि उसे करके दिखाया। रेवड़ा में किसान महिलाओं ने जमींदार के गुमाश्ता की कस के ठुकाई की तब जाकर इस इलाके में जमींदारों के अत्याचार पर थोड़ी रोक लगी।”
पटना विश्विद्यालय में इतिहास जेंडर स्टडीज की प्रोफेसर रहीं पद्मलता ठाकुर ने कहा ” स्वामी सहजानंद सरस्वती ने स्वतंत्रता संग्राम के साथ किसान आंदोलन को जोड़ा। इनके बारे में समझते हुए चंपारण सत्याग्रह की याद आती है। गांधी जी किसानों के बीच बैठकर उनके बारे में लिखते जाते थे। किसानों को निडर बनाया। सत्याग्रह का पहला प्रयोग उन्होंने किया। संगठन में कितना बल है इसे समझाया। कैसे स्वामी सहजानंद सरस्वती को देखर महिलाओं ने सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आंदोलन चलाया। महिलाओं को अभी भी किसान का दर्जा नहीं दिया जाता। स्वामीनाथन समिति की सिफारिशों को लागू नहीं किया जाता है। मैं विमेंस स्टडीज के अपने छात्रों को फील्ड विजिट में भेजा करती थी कि क्या सचमुच महिलाओं को सशक्त किया जाता है लेकिन ऐसा नहीं है वे सिर्फ महाजानों से थोड़ा कम दर पर कर्ज देते हैं। समितियों में समाज सुधार या सशक्तीकरण की बात नहीं होती। बिना सरकारी हस्तक्षेप के नहीं होता लेकिन सरकार से बाहर ही यह काम करना होगा। पितृसत्ता से बाहर मुक्त नहीं हुआ जा सकता। सिर्फ कानून से कुछ नहीं होगा। ”
पटना आई.आई.टी की प्रोफेसर स्मृति सिंह के अनुसार ” हमें अपने आप से पूछना है कि आज सुबह कितने लोगों ने खुद अपने हाथ से पानी पिया है। यह सवाल अपने आप से पूछना होगा। महिलाओं के काम में हाथ बंटाना होगा।”
पटना आई.आई.टी के प्रोफेसर नलिन भारती के अनुसार “महिलाओं की भागीदारी की योजना और कार्यक्रम शुरू हुए हैं। हमें बहुत सारी चीजें अपने आसपास के देशों से तुलना करनी चाहिए। जैसे भूटान से। वे लोग वहां हैप्पीनेस इंडेक्स को देखना चाहिए। स्वामी सहजानंद सरस्वती मानते कि वंचित समाज के लोगों की भागीदारी मिले। एक ऐसा समय है जब हम सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल की बात हो रही है। आज हमारा मुकाबला ग्लोबल है। आज सरस्वती का मतलब ही है शिक्षा। स्वामी जी पीछे छूट चुके लोगों की बात किया करते थे। “
मगही कवि मथुरा प्रसाद पर शोध करने वाली कुमार रागिनी ने किसान आंदोलन के दौर के कई गीतों से उपस्थिति जनसमूह को परिचित कराते हुए कहा ” जमींदार लोग महिलाओं की मर्यादा का हनन किया करते थे। जब तक हमें अपना अधिकार न मिले तब तक हमें संघर्ष करते रहना चहिए। एक गीत में कहा जाता है ‘बाबू दरोगा जी कौने गुनहिया बांध ल पियवा मोर, न मोर पियवा मधुआ के मातल, न मोर पियवा चोर ‘ । ठीक इसी प्रकार एक दूसरे गीत में महिलाएं गाती हैं ‘ बाबू बाराहिल जी तोड़े न देबो छप्पर पर के परोर, जादे करब त हथवा देबो मरोड़, देहिया सिरोर ‘। “
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ( मार्क्सवादी ) के राज्य सचिव मंडल सदस्य सर्वोदय शर्मा ने अपने संबोधन में कहा ” आज पहली बार है कि स्वामी की जयंती अंतराष्ट्रीय महिला दिवस के दिन महाशिवरात्रि के कारण मना जा रहा है। स्वामी जी ने अध्यात्म से शुरू कर मार्क्सवाद तक का अपना सफर तय किया। किसान लोग मरने पर अपने गाय और बैल को बेच दिया जाता है। पहले स्वामी जी को लगता था इस खरीद बिक्री के काम में एक खास समुदाय के लोग शामिल हैं। लेकिन उन्होंने अपने अनुभव से देखा कि दरअसल इसमें तो जमींदार और उनके लोग ही कसाइयों को प्रश्रय दिया करते थे। स्वामी जी उनका क्रमिक विकास हुआ और धीरे धीर मार्क्सवाद की को आकृष्ट हुए। गांधी जी से उनका मोहभंग हो गया। पहले कांग्रेस में जमींदार के परिवार के लोग हुआ करते थे। आज भी जब महिला आंदोलन की बात होती है तो वकील, डॉक्टर खोजते थे। स्वामी जी के आंदोलन में कैसे महिलाओं की भूमिका थी उसे आज हमलोगों ने समझा। हमारे देश में पश्चिम से नए किस्म का महिला आंदोलन शुरू हुआ। वह पुरुष विरोधी आंदोलन के रूप में विकसित हो गया। क्या ऐसा आंदोलन नारी मुक्ति दिला पाएगा यह हमें सोचना है। अंतरिक्ष में जाने वाली पहली महिला यूरी गागरिन को भेजा गया। महिलाओं को जहां मौका मिला है वहां उसने अपना हुनर दिखाया है। लक्ष्मी बाई ने जो कुर्बानी दी उसे देख हैरत होती है। ”
सभा में पटना कॉलेज के पूर्व प्राचार्य प्रो नवल किशोर चौधरी, बनारस हिंदू विश्विद्यालय में मूर्तिकला के प्राध्यापक अमरेश कुमार, राष्ट्रीय कला अकादमी नई दिल्ली की कला पत्रिका के संपादक रहे सुमन सिंह, सामाजिक कार्यकर्ता सुधाकर कुमार , आनंद कुमार, अंगिरा शर्मा, अमन लाल, मुकेश कुमार , लवकुश शर्मा , ओमप्रकाश शर्मा, रिशांक राज, रवि , विनेश, शिवम मिश्रा, दिलीप कुमार , सोनाली , वैभव , आदि मौजूद थे।
अध्यक्षीय वक्तव्य श्री सीताराम आश्रम ट्रस्ट के अध्यक्ष योगेंद्र प्रसाद सिंह ने किया । कार्यक्रम का संचालन पटना जिला किसान सभा के संयोजक गोपाल शर्मा ने जबकि धन्यवाद ज्ञापन ट्रस्ट के सदस्य सुधांशु कुमार ने किया।