पटना: पटना पुस्तक मेला में अरुण सिंह की बहुप्रतीक्षित पुस्तक ‘पटना: भूले हुए किस्से’ (Patna : Bhoole Huye Kisse) का भव्य लोकार्पण किया गया। वाणी प्रकाशन द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में साहित्य, इतिहास और संस्कृति जगत की प्रमुख हस्तियां शामिल हुईं। सभी वक्ताओं ने एक स्वर में इस पुस्तक को पटना की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर को सहेजने वाला दस्तावेज बताया। कार्यक्रम का संचालन आईपीएस अधिकारी और साहित्य प्रेमी सुशील कुमार ने किया।
उन्होने लेखक अरुण सिंह का परिचय देते हुए कहा, “अरुण जी पटना के इतिहास और संस्कृति के गहन जानकार हैं। उनकी यह तीसरी पुस्तक, ‘पटना: भूले हुए किस्से’, न केवल पटना के भूले हुए अतीत को सामने लाती है, बल्कि इसे पढ़ने योग्य और रोचक बनाती है।” उन्होंने लेखक की पिछली पुस्तकों ‘पटना: खोया हुआ शहर’ और ‘पटना: वास्तुकला इतिहास और कथाएं’ का भी उल्लेख किया और कहा कि अरुण सिंह का लेखन पीढ़ियों तक याद रखा जाएगा। अतिथियों का स्वागत वाणी प्रकाशन की संपादक अदिति माहेश्वरी ने किया। कार्यक्रम में उपस्थित प्रमुख अतिथियों ने पुस्तक की प्रशंसा करते हुए इसे ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और शोधपरक दृष्टि से महत्वपूर्ण बताया।
साहित्यकार संतोष दीक्षित ने कहा, “अरुण जी ने भूली-बिसरी कहानियों और किस्सों को एकत्र कर शहर के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक जीवन को जीवंत बना दिया है। यह किताब न केवल पटना, बल्कि भारत के अन्य शहरों के सांस्कृतिक इतिहास को समझने का भी माध्यम बन सकती है। आने वाले समय में यह और भी प्रासंगिक हो जाएगी।” उन्होंने इसे एक ऐसी रचना बताया, जो इतिहास और संस्कृति के कई नए आयाम खोलती है।
खुदा बख्श ओरिएंटल लाइब्रेरी के पूर्व निदेशक इम्तियाज अहमद ने पुस्तक को इतिहास और संस्कृति के क्षेत्र में अद्वितीय योगदान बताया। उन्होंने कहा, “अरुण जी ने ओरल ट्रेडिशन्स (मौखिक परंपराओं) और लोककथाओं को इतिहास के महत्वपूर्ण स्रोत के रूप में प्रस्तुत किया है। यह पुस्तक इतिहासकारों और शोधकर्ताओं के लिए एक अमूल्य दस्तावेज है।”
उन्होंने पटना से जुड़ी पुरानी पुस्तकों का जिक्र करते हुए कहा, “1924 में उर्दू के मशहूर शायर अजीमाबादी के ‘नक्शे पायदार’ और 1930 में बदरु हसन की ‘यादगार-ए-रोज़गार’ ने पटना के इतिहास को विस्तृत रूप में प्रस्तुत किया था। लेकिन भाषा की सीमाओं और पाठकों की कमी के कारण ये किताबें व्यापक रूप से सामने नहीं आ सकीं। अरुण जी की किताब ने इन परंपराओं को हिंदी में रोचक और व्यापक रूप से प्रस्तुत कर एक बड़ी उपलब्धि हासिल की है।” उन्होंने इसे न केवल एक ऐतिहासिक स्रोत, बल्कि आम पाठकों के लिए भी बेहद उपयोगी और रोचक बताया।
कवि और मनोचिकित्सक डॉ. विनय कुमार ने कहा, “यह किताब पटना के अचेतन की पहचान कराती है। शहर में कितनी विविधता है, यह हम तब तक नहीं जान सकते, जब तक ऐसी किताबें न पढ़ें। अरुण जी ने इस किताब में उन पहलुओं को उजागर किया है, जिन्हें हम रोजमर्रा की जिंदगी में अनदेखा कर देते हैं।”
उन्होंने आगे कहा, “इस पुस्तक ने ऐतिहासिक पात्रों जैसे विलियम टेलर के भीतर छिपे मानवीय पहलुओं को उजागर किया है। यह किताब बताती है कि हर इंसान के भीतर राम और रावण दोनों मौजूद होते हैं। अरुण जी ने पटना के अनदेखे पहलुओं को समझने और महसूस करने का एक रास्ता दिया है।”
जेएनयू के पूर्व प्राध्यापक प्रो. सुबोध नारायण मालाकार ने पुस्तक की दो विशेषताओं को रेखांकित किया। उन्होंने कहा, “पहली, यह पुस्तक साझी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है। दूसरी, यह संपूर्णता में लिखी गई है। अरुण जी ने विस्मृतियों पर प्रकाश डालकर समाज और संस्कृति के भूले हुए पहलुओं को उजागर किया है। यह पुस्तक बेहद उपयोगी और प्रासंगिक है।”
संस्कृतिकर्मी अनीश अंकुर ने पुस्तक की विशेषताओं पर जोर देते हुए कहा, “यह किताब अपने अध्यायों से ही पता चलती है कि कितनी दिलचस्प और रोचक है। इसमें ‘मुशहर थे पटना के मूल निवासी’, ‘अंग्रेज दुशाधों से बनवाते थे खाना’ और ‘बाभन नाम से पहचाने जाने वाले बौद्ध’, जैसे कई अध्याय शामिल हैं। अरुण जी ने शहर के इतिहास को केवल तथ्यात्मक रूप में नहीं, बल्कि रोचक कहानियों और किस्सों के जरिए प्रस्तुत किया है।”
उन्होंने कहा, “इस पुस्तक को पढ़ते समय पाठक पटना के इतिहास और सांस्कृतिक परंपराओं को करीब से महसूस करेंगे। यह किताब इतिहास को केवल जानकारी देने वाला नहीं, बल्कि जीवंत करने वाला दस्तावेज है।”