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अर्चेनेस्टो चे  ग्वेरा: बेमिशाल है इनका जीवन, शहादत और महागाथा

दुनिया के किसी कोने में कहीं भी - किसी के खिलाफ होने वाली अन्याय को महसूस कर सको। यह एक क्रांतिकारी की सबसे खूबसूरत- सबसे अनोखा ख़ासियत।” - चे ग्वेरा

लैटिन अमेरिका दुनिया का एक ऐसा क्षेत्र जो दो महाद्वीपों क्रमशः उत्तरी अमेरिका और दक्षिणी अमेरिका में फैला है। इसमें 19 संप्रभु राष्ट्र और एक ग़ैर स्वतंत्र क्षेत्र, प्यूटो रुको शामिल हैं। इस क्षेत्र के अधिकांश लोग स्पैनिश या पुर्तगाली भाषा बोलते हैं हालाँकि फ़्रेंच, अंग्रेज़ी, डच आदि भाषाएँ भी बोली जाती हैं।

19 वाँ शताब्दी के अन्त आते आते लैटिन अमेरिका के तमाम देश उपनिवेश वाद को ख़त्म कर दिया था परन्तु इसके साथ ही नव उदारवादी का दौर शुरू हो गया। इस दौर की विशेषता थी इन देशों में अमेरिकी साम्राज्यवाद समर्थित सैन्य शासन। आम लोगों की ग़रीबी ,निर्भरता, कुपोषण आदि। इस स्वतंत्रता की आड़ में पूँजीपतियों द्वारा भयानक लूट। लेकिन जल्द ही इन देशों में इस शासन के खिलाफ आंदोलन शुरू हो गया। यह आंदोलन था साम्राज्यवादी लूट और असमानता के खिलाफ । धीरे धीरे स्थानीय सरकार और जनता के बीच संघर्ष तीखा होता गया।साम्राज्यवादी पिट्ठुओं के खिलाफ लड़ाई छापामार युद्ध का रूप भी धारण करने लगे। जहां विरोध करने के तमाम जनतांत्रिक रास्ते अवरुद्ध हो जाते हैं वहीं सशस्त्र संघर्ष तेज हो जाता है। द्वितीय युद्ध में फासीवाद की पराजय और 1949 में चीनी क्रांति से पूरी दुनिया में साम्राज्यवाद और  असमानता के खिलाफ लड़ाई तेज हो गयी ।

यह आंदोलन लेटिन अमेरिका में भी ज़ोर पकड़ने लगा। साम्राज्यवादविरोधी संघर्ष में जिन लोगों ने सक्रिया भूमिका निभायी उसमें  एक प्रमुख नाम है अर्नेस्टो चे ग्वेरा । चे ग्वेरा क्रांतिवेदी का वह शिखर ध्वज हैं जिसकी पताका आत्मत्याग, बलिदान, शौर्य और पीड़ित मानवता के प्रति असीम प्रेम रोगों से सुर्ख़ है और वह विश्व-साम्राज्यवाद के विरूद्ध दुनिया-भर के मुक्तिकामी जन-गण को अप्रतिहत संघर्ष और विद्रोह की प्रेरणा देती रहती है और आगे भी देती रहेगी। अपने 39 साल के छोटे से जीवन में चिली, पेरू, बोलिविया, ग्वाटेमाला, अलसल्वाडोर और मेक्सिको की अनजान राहों पर चलकर वहाँ की ग़रीबों और सर्वहारावाद समाज को निकट से देखा। इन्हीं राहों से गुजरते हुए उन्होंने क्यूबा की क्रांति की बिखराव और गोलबन्दी , उत्साह और थकान, आग और खून, ग़द्दारी और शहादत के बीच चलने वाली छापामार लड़ाई में भाग लिया और अन्त में वहाँ की सैनिक सरकार बतिस्ता का पलायन हुआ और क्रांति की विजय हुई। फिर नये समाजवादी क्यूबा का निर्माण हुआ। इसके बाद कांगोवासियों के मुक्ति संघर्ष में वहाँ के क्रांतिकारियों के साथ कंधा में कंधा मिलाकर लड़ाई लड़ी। लेकिन चे का अभियान यहीं नहीं रूका । इसके बाद बोलिविया की धरती पर अमेरिकी साम्राज्यवाद और उसके विरूद्ध शानदार गुरिल्ला अभियान में शामिल हुए जहां उनकी वीरतापूर्वक शहादत हुई। बेमिशाल है चे का जीवन , बेमिशाल है उनकी शहादत, बेमिशाल है उनकी महागाथा। उससे भी रोमांचक है चे और उनके साथियों की अस्थियोंको खोद निकाला जाना और क्यूबा की धरती पर उनका स्मारक प्रतिष्ठित करके क्रांतिकारियों की निशानियों को मिटा देने की साम्राज्यवादी साज़िश को नाकाम किया जाना।

14 जून 1928 को चे ग्वेरा का जन्म अर्जेंटीना के रोसारियो शहर में हुआ था। इनके पूर्वज आयरलैंड से अर्जेंटीना आए थे। माता-पिता ने नाम अर्निस्टो रखा। बचपन से ही वह चंचल स्वभाव के थे इसलिये उनके पिता अक्सर कहते थे कि मेरे बेटे में पहली चीज नज़र आती है वो है उसकी रंगों में दौड़ रही विद्रोही आयरिश खून। अस्थमा बीमारी के बावजूद चे ने अपने आपको को एक अच्छे एथलीट के रूप में ढ़ाल लिया। वे स्विमिंग, गोल्फ, फुटबॉल, शूटिंग और रग्बी के अच्छे खिलाड़ी थे। उन्हें आजन्म कविता के प्रति अभिरुचि रही। पाब्लो नेरूदा , लार्को, जॉन कीट्स के बड़े प्रशंसक थे।

अर्जेंटीना की राजधानी व्यूनस आयर्स में चे ने डाक्टरी की पढ़ाई के लिये विश्वविद्यालय में दाख़िला लिया। 1950 में वे अपनी प्रसिद्ध मोटरसाइकिल यात्राओं पर निकल पड़े। इस दौरान उन्होंने अपनी अर्जेंटीना का 4800 कि॰मी॰ का सफ़र मोटरसाइकिल पर तय किया। इसके बाद वह 1951 में लगभग पूरे दक्षिण अमेरिका की 9000 कि॰मी॰ की यात्रा मोटर साइकिल पर तय किया। इस दौरान उन्होंने चिली के खान श्रमिकों की दशा देखी जो पूँजीवादी शोषण की वजह से नारकीय जीवन बिता रहे थे। साथ में माच्चू-पिच्चू में गरीब किसानों का जीवन देखकर वह विचलित हो गये।इस यात्रा से लौटने के बाद 1953 में उन्होंने अपनी मेडिकल की डिग्री पूरी की। इस यात्रा के दौरान उन्होंने भूख, ग़रीबी और बीमारी देखी और देखा कैसे लोग पैसे की कमी के कारण अपने बीमार बच्चों का इलाज नहीं करवा पाते हैं और अपने बच्चों की मौत को एक ‘महत्वहीन दुर्घटना‘ मानकर संतोष कर लेते हैं। इन तमाम अनुभवों से वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे,”अगर इन लोगों की सहायता करनी है तो उनको डाक्टरी के साथ-साथ क्रांति का भी रास्ता अख़्तियार करना होगा।”

जुलाई 1953 में वे फिर से यात्रा पर निकले। पेरू, बोलीविया, अल सल्वाडोर, पनामा, कोस्टा रिका, निकारगुआ, ग्वाटेमाला माला, होते हुए। दिवंगत स्तालिन के समक्ष शपथ ली कि वे तब तक चैन नहीं लेंगे जब तक पूंजीवादरूपी यह आक्टोपस को ख़त्म न कर दें। 1953 में ही वह निर्वासित फ़िदेल कास्त्रो के सम्पर्क में आये। इसी दौरान उन्हें  उनका प्रसिद्ध नाम चे मिला। ग्वाटेमाला में उनकी मुलाक़ात हिल्दा गादेया हुई जो एक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और वामपंथी थी। हिल्डा ने उनकी मुलाक़ात ग्वाटेमाला की वामपंथी झुकाव वाली सरकार के अधिकारियों से करवायी। लेकिन इस सरकार की सी आई ए की साज़िश से तख्तापलट होने के बाद हिल्डा को गिरफ्तार कर लिया गया और चे ने अर्जेंटीना के दूतावास में छिपकर जान बचानी पड़ी। उसके बाद वह मेक्सिको चले गये। मेक्सिको में ही चे की शादी हिल्डा से हुई। लेकिन ग्वाटेमाला की तख्तापलट से उन्हें विश्वास हो गया कि साम्राज्यवाद के विरूद्ध सशस्त्र संघर्ष ही उपाय है।

इसके बाद चे ने क्यूबा की क्रांति में ऐतिहासिक भूमिका निभायी।1955 में  जब चे की मुलाक़ात फ़िदेल से हुई उन्होंने क्यूबा में अमेरिकी साम्राज्यवाद समर्थित सैन्य शासन को उखाड़ने की योजना बनायी। फिर चे ने फ़िदेल सहित 89 अन्य साथियों के साथ ग्रामांचलों नामक एक पुरानी नौका में सवार होकर क्यूबा प्रस्थान किये। सफलता पर सबको संदेह था। वहाँ पहुँचते ही उनपर हमला किया गया। अधिकांश विद्रोही मारे गये। जो बच गये वह सिएरा मेस्ट्रा में जमा हुए। लड़ाई के दौरान विद्रोहियों द्वारा क़ब्ज़ा वाले क्षेत्रों में भूमि सुधार लागू करके किसानों का समर्थन जीतकर अपनी ताक़त का निर्माण किया। दिसंबर 1958 में साँचा क्लार्क में निर्णायक लड़ाई हुई। इस लड़ाई में चे की शानदार रणनीति के कारण जीत हुई। इसके बाद वह क्यूबा की राजधानी हवाना में प्रवेश किये। जनवरी 1959 मेंलैटिन अमेरिका में पहला इंक़लाब हुआ। लेकिन सबसे मुश्किल काम था क्यूबा में समाजवाद लाना क्योंकि तानाशाह बतिस्ता ने क्यूबा की आर्थिक स्थिति अत्यन्त ख़राब थी।बतिस्ता ने क्यूबा के लगभग 42.24 करोड़ डालर अमेरिकी बैंकों में स्थानांतरित कर दिया गया।

चे को राष्ट्रीय बैंक का अध्यक्ष और फिर देश का उद्योग मंत्री बनाया गया। चे ने क्यूबा में सामाजिक आर्थिक सुधारों की शुरुआत की जिसके तहत चे ने कृषि सुधार नियम लागू किया।चीनी के लिये की जाने वाली खेतियों में विदेशियों की भागीदारी पर प्रतिबंध लगाया। आर्थिक विषमता के उन्मूलन के लिये चे के द्वारा उठाये गये कदमों का जनता ने खुलकर स्वागत किया।

तमाम अमेरिकी साम्राज्यवाद की दादागिरी, आर्थिक नाकेबन्दी, घात-भीतरघात की चालों और क्रांति के नेताओं की हत्या का असंख्य साजिशोंका मुक़ाबला करते हुए क्यूबा में एक नये समाजवादी समाज और नये मनुष्यों के निर्माण का कार्यभार बाक़ी था। इसी बीच पूरी दुनिया तीसरे विंश्वयुद्ध के ज्वालामुखी पर पहुँच गयी। इस बुरे वक़्त का भी फ़िदेल के नेतृत्व में क्यूबा की जनता ने बहादुरी के साथ सामना किया। इस क्रांति की रक्षा और दुनिया की तमाम उत्पीड़ित जनता की मुक्ति के लिये चे क्यूबा से विदा हो गये। चे का समाजवादी राज्य का सपना केवल क्यूबा तक सीमित नहीं था बल्कि इसे पूरे लैटिन अमेरिका में फैलाना चाहते थे। सरकार स्थापित करने के बाद ही चे विदेश यात्रा पर निकल गये। वह एशिया अफ़्रीका के कई देशों की यात्रा की। वह अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ अभियान में जुटे थे।

क्यूबा से विदा होते वक्त उन्होंने अपने बच्चों के लिये पत्र में उन्होंने लिखा,” तुम्हारा पिता वह इंसान है जो हमेशा अपने विश्वासों पर चलता रहा है और हर क़ीमत पर अपनी प्रतिबद्धताओं के प्रति पूरी तरह से ईमानदार रहा है।” आगे इसी पत्र में वह अपने बच्चों को लिखा,” दुनिया के किसी कोने में कहीं भी – किसी के खिलाफ होने वाली अन्याय को महसूस कर सको। यह एक क्रांतिकारी की सबसे खूबसूरत- सबसे अनोखा ख़ासियत।”

1960 में प्रधानमंत्री पैट्रिक लुमुम्बा के नेतृत्व में कांगो को बेल्जियम से स्वतंत्रता मिली। लेकिन इस आज़ादी को विफल कर दिया गया। सी॰आई॰ए॰ द्वारा प्रायोजित हिंसा में लुमुम्बा की हत्या कर दी गयी। इस सवाल को चे ने संयुक्त राष्ट्रसंघ में उठाया  था। क्रांतिकारी अन्तर्राष्ट्रीय के कार्यभार ने एक बार चे को सब कुछ छोड़कर अन्तर्राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष में लहू और बारूद की राह पकड़ने के लिये मजबूर हुए। वह क्यूबा के कुछ छापामारों के साथ कांगो में छापामार युद्ध में शामिल हुए। लेकिन यहाँ इन्हें असफलता मिली। अभियान की असफलता के अनुभवों से वह क्रांतिकारी अन्तर्राष्ट्रीयता के अगले अभियानों के लिये महत्वपूर्ण सबक़ हासिल किया। वह कहते हैं कि अशिक्षित,अपरिपक्व और असंगठित लोगों के हाथ में गुरिल्ला अभियान की कमान सौंपने का नतीजा समूचे अभियान और क्रांति को विश्राम और हताशा की ओर ढ़केलना है।

कांगो में चे अपनी असफलता के बाद वह बोलिविया को साम्राज्यवादी चंगुल से मुक्त करने के लिये व्यापक क्रांतिकारी गुरिल्ला  लड़ाई की अभियान में लग गये। इस अभियान के लिए उन्होंने क्यूबा से चुनिन्दा योद्धाओं को चुनकर बोलिवियाई और पेरूवियाई लड़ाकों के साथ 7 नवंबर 1966 को  शुरू हुआ यह 9 अक्तूबर, 1967 को चे और छ: अन्य साथियों की शहादत के साथ ख़त्म हुआ। यह अभियान क़रीब 11 महीनों तक चला। यह पूरा अभियान की चे के बोलिविया डायरी, संघर्ष के कमांडर द्वारा सीधे रणक्षेत्रों मैदान से बोलिविया कम्युनिस्ट पार्टी का असहयोग, स्थानीय किसानों की सेना के दबाव में ग़द्दारी, भोजन-पानी और दवा का घोर अभाव और बाहरी दुनिया से पूरी तरह से कट चुके सम्पर्क के बावजूद पेंटिंग और सी आई ए द्वारा प्रशिक्षित 1700 रेंजरों, सैकड़ों भेदियों जासूसों की कमान वाली बोलिवियाई सेना के साथ 17 गुरिल्ला लड़ाकों के अद्भुत आत्मबल, साहस और शौर्य के साथ अन्तिम दम तक संघर्ष के मैदान में डटे रहकर अकल्पनीय दुश्वारियों झेलते हुए अपने लहू से लिखी गयी मुक्ति संघर्ष की महानतम शौर्यगाथा है।

अक्टूबर, 1967 को अमेरिकी- बोलिवियाई जल्लाद मंडली के हाथों चे की हत्या हुई और ठीक उससे दो दिन पहले 7 अक्टूबर, 1967 को चे अपनी प्रसिद्ध बोलिविया डायरी में अंतिम पंक्तियाँ लिखी,” सेना ने सर्राफ़ा में 250 व्यक्तियों की उपस्थिति के बारे में विचित्र जानकारी दी। उसके अनुसार घिरे हुए लोगों को रोकने के लिए जिसकी संख्या 37 है ऐसा किया गया। वे असीरों और ओटो के बीच हमारे गुप्त ठिकानों की बात कर रहे हैं। समाचार कुछ उलझा हुआ प्रतीत होता है। ऊँचाई—2000 मीटर।”उस रात 1 बजे जब उन्होंने एक संकरी घाटी में रूककर घेराबंदी तोड़ने का एलान किया तभी उसका सामना एक बड़े सैनिक दस्ते से हो गया। अपने सीमित छापामारों की टुकड़ी के साथ जिसे उस दिन की मुठभेड़ से निपटने की ज़िम्मेदारी दी गयी थी उन्होंने दुश्मनों का मुक़ाबला बहादुरी पूर्वक किया। घाटी को घेरे अनगिनत सैनिकों से सुबह तक डटकर लोहा लेते रहे। चे की सुरक्षा में उसके आस-पास तैनात साथियों में से कोई भी बच नहीं पाया।केवल चे हालत पहले से ख़राब थी और एक पेरूविआई छापामार जो बुरी तरह घायल था, जीवित था।

चे घायल होने के बावजूद भी लगातार लड़ते रहे जातक एक गोली से उनकी एम-2 राइफ़ल क्षतिग्रस्त नहीं हो गई। उनके पास जो पिस्तौल थी उसमें गोलियाँ नहीं थी। इस प्रकार उन्हें जीवित पकड़ा गया। पाँव में लोगी लगने के कारण वह चलने में असमर्थ थे। 9 अक्तूबर ,1967 की सुबह बोलिविया के निरंकुश राष्ट्रपति लेने बेरिनटोस ने चे को मृत्युंजय का आदेश सुना दिया। मृत्युदंड से पहले चे और सैनिक के बीच दिलचस्प बातचीत हुई। रोड्रिग्ज ने पूछा क्या वह अपने परिवार और किसी और को संदेश भेजना चाहते थे। चे ने कहा,” फ़िदेल से कहना इस असफलता का मतलब क्रांति का अंत नहीं है। यह निश्चित रूप से हाँ नहीं तो कहीं और विजय का परचम लहरायेगी। एलीदा (पत्नी से कहना यह सब भूल जाए फिर से विवाह करे ,ख़ुश रहे।बच्चों के पढ़ने – लिखने का हमेशा ध्यान रखती रहे। फ़ौजियों से कहना ,निशाना सटीक लगाएँ।” लेफ़्टिनेंट मारिया तेरा को ज़िम्मा मिला गोली मारने का। मशीन गन लेकर वह चे के कमरे में घुसा। उसके हाथ बुरी तरह काँप रहे थे। चे ने अपनीलनिर्भिक कड़क के साथ उसे ठीक से निशाना साधने को कहा। चे ने कहा ,” मुझे मालूम है तुम मुझे मारने आये हो। गोली चला कायर तुम बस एक निहत्थे घायल को ही मारने जा रहे हो।”9 अक्टूबर को दोपहर 1बजकर 10 मिनट पर चे ग्वेरा क्रांतिवेदी पर शहादत के शिखरध्वज बनकर अमर हो गये।

नृशंस कायर हत्यारों के हाथों चे के जीवन की अन्तिम घड़ियों में न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक रूप से अकल्पनीय तकलीफ़ के बारे में फ़िदेल ने ठीक ही कहा था,”चे से बेहतर ऐसी कठिन कठोर परीक्षा के लिये तैयारी किसी की भी नहीं हो सकती थी।”18 अक्टूबर,  1967 को फ़िदेल ने लाखों की तादाद में में जुटी जनता से सवाल किया,” हम बच्चों को क्या बनाएँगे ? चारों दिशाओं से एक ही आवाज़ गूंजा ,” हम उन्हें चे बनायेंगे।”

सुनील कुमार सिंह

लेखक, विश्लेषण एवं टिप्पणीकार

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