पुस्तक समीक्षा: महाजागरण का शलाका पुरुष: स्वामी सहजानन्द सरस्वती
✍️ कैलाश चंन्द्र झा (श्री सीताराम आश्रम ( राघवपुर, बिहटा) के ट्रस्टी)
कुबेरनाथ राय
सम्पादक: मनोज राय
सेतु प्रकाशन , 2022
महाजागरण का शलाका पुरूष: स्वामी सहजानन्द सरस्वती की प्रति देखकर मैं उछल पड़ा। स्वर्गीय कुबेरनाथ राय की स्मृति दौड़ गई और उनके ‘सहजानन्द समग्र’ के संपादक होने की बात और फिर उसके प्रकाशन पर पेचीदगियाँ चलीं, जिससे मैं थोड़ा बहुत अवगत हूं। सर्वप्रथम मनोज राय इस पुस्तक के संपादक बधाई और धन्यवाद दोनों के पात्र हैं। अगर कुबेरनाथ राय की सम्पूर्ण भूमिका/संपादकीय प्रकाशित नहीं होती तो यह उनके साथ अन्याय होता और साथ ही स्वामी सहजानंद सरस्वती के रचनाओं के प्रति भी।
मैं और प्रो. वाल्टर हाउजर अप्रिल, 1993 में श्री कृष्ण चंद्र बेरी, ‘ हिन्दी प्रचारक संस्थान ’, वाराणसी के मेहमान थे। वाल्टर हाउजर श्री राय कृष्ण दास जन्म शताब्दी समारोह के मुख्य अतिथि थे, जिसका आयोजन बेरी साहब ने रखा था। पहले से ही तय था कि श्री केशव प्रसाद शर्मा, संस्थापक ‘ स्वामी सहजानन्द सरस्वती महाविद्यालय’, गाजीपुर भी रहेंगे और वे हमें अगली सुबह देवा (स्वामीजी के गाँव) और गाजीपुर ले जाएंगे। यथावत हम अगली सुबह गाजीपुर/ देवा के लिए निकले। ‘देवा’ से लौट कर ‘स्वामी सहजानन्द सरस्वती महाविद्यालय’ पहुंचे। श्री कुबेर नाथ राय, प्राचार्य के कमरे में गए और उनसे मुलाकात हुई। उन्होंने वाल्टर हाउजर का व्याख्यान रखा था। इस का जिक्र करना आवश्यक है, इस पुस्तक की समीक्षा के परिपेक्ष्य में। श्री केशव प्रसाद शर्मा और श्री रामचंद्र शर्मा ( स्वामी जी के भतीजे जो महाविद्यालय में प्रध्यापक भी थे ) हम संम्पर्क में थे। दिल्ली में मुलाकात भी होती थी। सबसे पहले ‘सहजानन्द समग्र’ की परिकल्पना केशव प्रसाद शर्मा, रामचन्द्र शर्मा और कृष्ण चंन्द्र बेरी जी की थी। और संपादक के रूप में कुबेरनाथ राय और प्रो. अवधेश प्रधान, हिन्दी विभाग, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय। जहाँ तक मेरी जानकारी है, श्री केदार नाथ सिंह, तत्कालीन सचिव, श्री सीताराम आश्रम, बिहटा को जब यह बात पता चला तो उन्होंने बेरी साहब से कापीराइट की बात उठाई और ‘सहजानन्द समग्र’ की बात खटाई में पड़ गई। पूरी पांडुलिपि तैयार थी, प्रूफ रीडींग हो चुका था। इसके बाद क्या हुआ ‘ सहजानन्द समग्र ’ के साथ यह मेरे लिए एक पहेली रही। कालांतर में वह निकला, परंतु किन्हीं अन्य प्रकाशक द्वारा व अन्य संपादक के नाम से । जिनमे संपादकीय कहीं नहीं था। यह पुस्तक सुखद अनुभव दे रहा है इन्हीं कारणों से। और साथ ही कई सवालिया प्रश्न भी खड़ा करते हैं कि ये भूमिकाएं /संपादकीय ‘स्वामी सहजानन्द समग्र’ के साथ क्यों नहीं प्रकाशित हुई ?
सारी भूमिकाएं/संपादकीय सारगर्भित हैं और कुबेरनाथ राय जी ने स्पष्ट रूप से विश्लेषणात्मक विवेचना की है। वो सहजानन्द से कई जगह सहमत भी हैं और असहमत भी। उन्होंने अपने विचार स्पष्ट रखे हैं । मैने अभी तक इस तरह का विश्लेषण सहजानन्द की रचनाओं का कहीं और देखा नहीं है।
इस पुस्तक में ‘किसान आंदोलन का विकासः सहजानन्द से चारू और अब ’ की चर्चा अपरोक्ष रूप से है वाल्टर हाउजर के संदर्भ से। मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि इससे वाल्टर हाउजर का कोई लेना-देना नहीं था। यह ‘चन्द्रभूषण’ के छद्म नाम से संकलनकर्ता और संपादक का नाम देकर, वाल्टर हाउजर को प्रधान लेखक बनाया गया। और उनके थीसिस का कुछ अंश बिना उनकी अनुमति के अनुवाद कर इस रूप में प्रकाशित किया गया। ( The Bihar Provincial Kisan Sabha, 1929-1942, A study of an Indian Peasant Movement, Walter Hauser, Foreword by William R. Pinch, Curated with an Afterword by Kailash Chandra Jha, Manohar, 2019 में इसका जिक्र है।)
‘ब्रम्हर्षि वंश विस्तर’ में जातीय, जातीयता व जातिवादी का विभेद सूक्ष्म रूप से करते हुए सहजानन्द को उससे उठकर देखना, क्या सलीके से कहा गया है, जो वर्तमान में भी प्रासांगिक है।
‘कर्मकलाप’ को महज पूजन पद्धति का पुस्तक बताना-बिल्कुल सही है। इस पुस्तक का उपयोग मैथिल व अन्य ब्राम्हण पुजेरी भी करते हैं, यह मैंने खुद देखा है। हिन्दू संस्कार – विधि की यह पुस्तक है।
‘गीता हृदय’ की भूमिका में स्वामी सहजानन्द सरस्वती , एक मार्क्सवादी द्वारा पुस्तक लिखना और सही में मार्क्सवादी टीका के अंतर को बखूबी विस्तार से बताया है और साथ ही धर्म को मार्क्सवाद से जोड़ने का प्रयास। ‘गीता हृदय’ के संदर्भ में विशेष जानकारी उद्दृत कर रहा हूं। काश कुबेरनाथ राय जी को यह ज्ञात होता कि नागार्जुन किस तरह इसमें शामिल थे। ‘गीता हृदय’ के प्रकाशक ‘पुस्तक महल’, इलाहाबाद थे। उनके मैनेजर ने स्वामीजी को पत्र लिखा है।
किताब महल
इलाहाबाद
Dear Swamiji, 19th August, 1945
……Shree Nagarjun is revising your MSS. He is putting necessary matter in footnote and is also adding matter where necessary in comparison toTilak Gita. I hope the book will be very valuable and hotly salable after publication….
Yours Sincerely
S.N. Agarwal ,
Manager
सहजानन्द के किसान साहित्य की भूमिकाओं को एक भाग में डाला है, जिनमें ‘ मेरा जीवन संघर्ष ’ भी है। स्वामी जी की आत्मकथा को उनका सबसे महत्वपूर्ण कृति माना है और मेरी और वाल्टर हाउजर के समझ से भी यही सही है। और उसके अधूरापन को भी माना है। क्योंकि 1940 में हजारीबाग जेल में इसे लिखने के बाद 1946 में स्वामी जी ने परिशिष्ट लिखा है। परंतु 1942 से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति तक और आगे 1950 में मृत्यु तक की घटनाओं का कोई भी जिक्र नहीं किया है। मेरा और वाल्टर हाउजर का अनुमान रहा कि यह हिस्सा स्वामी जी के जीवन का अत्यंत ही कष्टप्रद हिस्सा रहा। और इसीलिए उन्होंने याद नहीं किया है। इन वर्षो में उनका संबंध सभी पार्टियों से टूट चुका था। किसान सभा को छोड़कर प्रमुख लोग इन पार्टियों में चले गये थे। सिवाय यदुनन्दन शर्मा और यमुनाकार्यी के। द्वितीय विश्वयुद्ध पर स्वामी जी ने कम्युनिस्ट पार्टी के ‘जनयुद्ध’ वाले सिद्धांत का समर्थन किया। 1942 में जनमानस इनसे और किसान सभा से दूर हो गया। ये अकेले, निराश , हतोत्साह रूप में दिखते हैं। कुबेरनाथ राय ने इन सबों का विश्लेषण बडे़ अच्छे तरीके से किया है। नीचे उद्धृत राहुल सांकृत्यायन की चिट्ठी, स्वामी जी और किसान सभा के स्थिति को परिलक्षित करता है और साथ ही कैसे जनमानस उनसे दूर हो रहा था।
हुंकार के लेटरहेड पर
देवेन्द्र दास लेन
Patna
31.08.1942
प्रिय स्वामी जी,
दर्भंगा (दरभंगा) से खबरें जो आई हैं , उससे पता लगा है कि कार्यीजी ( यमुना कार्यी ) जब यहां से घर पर गए तो वहाँ लोगों को उत्तेजित कर स्थानीय कांग्रेस नेताओं ने कार्यीजी को सरकार का आदमी कहकर घर जलाना चाहा। इस पर उन्होंने कहा कि हम आन्दोलन के साथ हैं , मजबूरी में आकर उनकी पांच की कौंसिल कमिटी के मेंबर भी बने। कौंसिल के तरफ से रेल और सड़क काटी गई और नष्ट किया गया, स्टेशन-पोस्ट ऑफिस जलाये गए। मालगोदाम लूटा गया। सिंग की भारत की एकमात्र फ्लैक्स की एकमात्र फैक्ट्री ( 5 लाख ) भी जला दी गई, पूसा स्कूल की इमारत को नष्ट कर दिया गया। पूसा की और इमारतों को भी नुकसान पहुंचाया। फिर पल्टन आई। कौंसिल के पांचों मेम्बरों को शूट करने वाले थे। कार्यी जी दर्भंगा (दरभंगा) डेन्वी ( Gerald Danby, Chief Manager, Darbhanga Raj ) के पास भागकर गये। उसकी सिफारिश पर शूट होने से बच गये। शायद लिखकर दे चुके हैं, कि शान्ति कायम करने में सरकार की मदद करेंगे। अब कार्यीजी या तो असली तोड़-फोड़ने वालों के खिलाफ गवाह बनें, नहीं तो लोग इनके खिलाफ बनेंगे। पुलिस को सारी बातें मालूम है।
ओरियंट प्रेस का क्या बनेगा? अच्छा है, ओरियंट प्रेस को बंद आपके हवाले कर दें। इसके लिए खास आदमी उनके पास भेजना चाहिये। शीघ्र। देन-लेन की बात पीछे होगी, पहिले प्रेस तो सुरक्षित कर लिया जाये। नहीं तो प्रेस बचने नहीं पायेगा।
आपका
राहुल सांकृत्यायन
‘क्रान्ति और संयुक्त मोर्चा’ को पाठ्य पुस्तक, परिचयात्मक पुस्तक कहा है। और ‘किसान सभा के संस्मरण’ को ‘मेरा जीवन संघर्ष’ की एक तरह से आंशिक रूप में पुनारावृति माना है। ‘किसान कैसे लड़ते हैं’? और ‘किसान क्या करें ? ’ को प्रचार साहित्य की कोटि में रखा है। केवल ‘महारूद्र का महातांडव’ जिसे स्वामी जी ने मृत्यु के कुछ दिन पहले लिखा है उसे लेखक ने महत्वूपर्ण माना है और ‘मेरा जीवन संघर्ष’ का उपसंहार या परिशिष्ट कहा है। पूरा किसान साहित्य को ‘मेरा जीवन संघर्ष’ में समाहित माना है। और यह ठीक भी है। मुझे खेद है कि ‘खेत मजदूर’ और ‘झारखंड के किसान’ (Sahjanand on Agricultural Labour and Rural Poor, Walter Hauser, Manohar, 1994 and Swami Sahajanand and the Peasants of Jharkhand: A view from 1941, Manohar, 1995) कुबेरनाथ राय जी के समक्ष न आ पाया। ये भी स्वामीजी के किसान साहित्य की प्रमुख कृतियां हैं। इनको पढने से उन्हें किसान की परिभाषा और खेत मजदूर को स्वामी जी के नजरिये से समझने में सुविधा होती और भूमिका में भी। साथ ही यहां उल्लेख करना उचित समझता हूं कि ‘किसान सभा के संस्मरण’ का जापानी अनुवाद, Prof. Sho Kuwajima, Osaka University ने 2002 वर्ष में किया।
श्री अवधेश प्रधान जी ने ‘ग्रंथ शिल्पी’ से प्रकाशित, ‘मेरा जीवन संघर्ष’ ‘खेत मजदूर व झारखंड के किसान’, ‘क्रांति और संयुक्त मोर्चा, ‘किसान कैसे लड़ते हैं?’ ‘और किसान क्या करें?’ आदि पुस्तकों की भूमिका/सम्पादकीय लिखा है जो बहुत ही उच्चकोटि का है। ‘सहजानंद समग्र’ के एक संपादक होने के नाते कम से कम उनकी भूमिकाऐं इस रूप में प्रकाशित हो चुकी थीं।
वाल्टर हाउजर ने ‘मेरा जीवन संघर्ष’ ( Culture, Vernacular Politics, and the Peasants: India, 1889-1950, an edited translation of Swami Sahajanand Saraswati’s Mera Jivan Sangharsh ( My Life Struggle ), translated and edited by Walter Hauser with Kailash Chandra Jha, Manohar, 2015) ‘खेत मजदूर’ व ‘झारखंड के किसान’, का अनुवाद और साथ में संपादकीय और टिप्पणी ( Endnote ) से विश्वविद्यालय के अकादमिक ( Academic ) जगत को ख्याल में रखते हुए काम किया है।
वाल्टर हाउजर, अवधेश प्रधान और कुबेरनाथ राय, इन तीनों का सहजानंद रचित पुस्तकों का विश्लेषण भिन्न-भिन्न प्रकार से है। और क्यों न हों। तीनों अलग विद्याओं से आते हैं।
श्री सीतराम आश्रम के ट्रस्टी के रूप में और स्वामी सहजानंद सरस्वती व श्री सीताराम आश्रम के साथ प्रतिबद्धता के कारण मैं आभारी हूं श्री मनोज राय जी का, श्री कुबेरनाथ राय जी की भूमिका/संपादकीय को पुस्तकाकार करने के लिए। मुझे पता है कि उन्होंने इसे कुबेरनाथ राय जी के प्रति स्नेह के कारण किया है, क्योंकि उनकी विधा कहीं और है। मैं उनपर इसी कारण कोई दोष नहीं डालता। यदि वह 2015-2022 तक की स्वामीजी से संबंधित नई बातों से अवगत होते तो अपने संपादकीय में जोड़ सकते थे। कई पुस्तकों का प्रकाशित होना, सामग्रियों का अमेरिका से वापस आना, श्री सीताराम आश्रम का पुनरोद्धार, Museum और Pictorial Gallaries की स्थापना की बात कर रहा हूं।
मैं कई तथ्य को सही भी करने की कोशिश कर रहा हूं। वाल्टर हाउजर के छात्र James R. Hagen और Dr. Kumar Suresh Singh 1974 में आश्रम से सामग्रियों को Nehru Memorial Museum and Library ले गये और उनका Microfilming हुआ और पुनः सामग्री वापस श्री सीताराम आश्रम आई। पूर्ण विवरण आश्रम की सामग्रियों के ऊपर Prof. William R. Pinch ने अपने Foreword में The Bihar Provincial Kisan Sabha 1929-1942 में लिखा है।
एक-दो त्रुटियाँ हैं । ‘अपारनाथ मठ’ की जगह ‘अमरनाथ मठ’ लिखा है, जहां स्वामीजी वाराणसी में रहा करते थे। (पृष्ठ 239)
अखिल भारतीय किसान सभा का गठन 1936 में न कि 1935 में (पृष्ठ 59)। पुस्तक में भी बाकी जगहों में 1936 ही लिखा गया है।
‘क्रांति और संयुक्त मोर्चा’ का प्रकाशन वर्ष 1941 और इसकी रचना भी 1941 (पृष्ठ 271) बताया गया है। पुनः इसे 1942-43 में लिखा गया (पृष्ठ 311) बताया है। ‘क्रांति और संयुक्त मोर्चा’ को स्वामी जी ने अगस्त और नवंबर 1941 के बीच हजारीबाग जेल में लिखा और इसका प्रकाशन 1943 में हुआ, उनके मार्च 1942 में जेल से रिहा होने के बाद ।
1943 में जेल से छूटे (पृष्ठ 311)। स्वामी जी 8 मार्च 1942 को जेल से रिहा हुए।
उम्मीद करता हूं पुस्तक के अगले संस्करण में संपादक इन त्रुटियों को दूर करने का प्रयास करेंगे।
सेतु प्रकाशन ने सुंदर पुस्तकाकार रूप दिया है। बधाई।